कविता: रिश्ते
यूँ तो रिश्तों की डोर साथ लेकर ही आये थे इस जहाँ में
मगर साँसें चलती रहीं, लोग भी मिलते रहे
रिश्ते बनते भी रहे, रिश्ते बिगड़ते भी रहे
अब जहाँ से जाने का वक़्त क़रीब लगा
तो रिश्तों का बही-खाता खोल बैठे हम
लगता है हिसाब में कुछ चूक हुई हमसे
लगता है हिसाब में कुछ चूक हुई हमसे
चूँकि इज़ाफ़ा तो कुछ मिला नहीं
शून्य से भी नीचे अब तो खड़े हैं रिश्तों में हम
शून्य से भी नीचे अब तो खड़े हैं रिश्तों में हम !
यूँ तो रिश्तों की डोर साथ लेकर ही आये थे हम !
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