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रात का साक्षात्कार

रेलगाड़ी पूरी रफ़्तार से भाग रही थी और मेरे कूपे में सब सो चुके थे.

रात का करीब एक बजा था लेकिन नींद मुझसे कोसों दूर थी. हमेशा की तरह उस रात भी रेलगाड़ी में मुझे नींद आ ही नहीं रही थी.

कूपे के अंदर की घुटन जब बर्दाश्त से बाहर हो गयी तो वो करने का फैसला किया जो पिछले कई सालों से नहीं किया था. चुपचाप दरवाजा खोला और अपने कूपे के पायदान पर बैठ गया. हवा के एक झोंके ने पूरी तरह झकझोर दिया था लेकिन अंदर के दमघोंटू माहौल से आज़ादी भी दिला दी थी.

कुछ साल पहले मैं बाहर घुप्प अँधेरे को देखते हुए पूरी रात ऐसे ही काट दिया करता था लेकिन समय के साथ डर बढ़ता गया और मेरी यह आदत छूटती चली गयी. आज उस डर को जीतने का मौका था .

कई सालों के बाद अँधेरे में डूबे गाँवों, शहरों, कस्बों और खेतों से बात करना अच्छा लग रहा था. ऐसा लग रहा था मानों बरसों बाद हम एक दूसरे का हालचाल जान रहे हों…शिकवा शिकायतों के साथ. पीली सफ़ेद रोशनी में नहाये गली और मोहल्ले थक के चूर थे लेकिन इतने सालों के बाद मिलने पर दिल का हाल बताये बिना कहाँ रह पाते.




कई सारे छोटे बड़े कस्बों ने रात के सन्नाटे में अपना दिल खोल कर रख दिया था. उन्हें अपनी पहले की ज़िन्दगी बहुत याद आ रही थी. उस दौर की ज़िन्दगी जब वो झटपट शहर बन जाने के चक्रव्यूह में नहीं फंसे थे. वो आज भी अपनी पुरानी बेतकल्लुफ और बेलौस ज़िन्दगी के नोस्टाल्जिया में जकड़े थे. दिन के उजाले में कौन भला उनसे यह बात कबूल करवा पाता? कुछ कुछ मेरे जैसे ही थे वो सब.

एक अनजान से शहर की शुरुआत में बेतरतीब मकानों को देखा तो लगा जैसे शहर के आवारा लड़कों का झुण्ड खड़ा हो. बेहाल और बेचारी सी शक्लें लिए, जिनसे किसी को कोई भी उम्मीद नहीं थी. कुछ मकानों के छज्जों पर रखे तुलसी के पौधों पर शाम को जलाया गया दिया अब तक टिमटिमा रहा था मानो कह रहा हो कि वो सुबह कभी तो आएगी.

एक लम्बी और चौड़ी सी सड़क देखी जो किसी शहर को बीचोंबीच से काट कर गुजर रही थी और शहर ने उफ़ तक न की थी. शायद तरक्की का इतना मोल चुकाना उसे अखरा नहीं था.

एक मैदान देखा..बारिश में नहाया मैदान जिसके दोनों छोरों पर दो गोलपोस्ट मुस्तैदी से खड़े सुबह आने वाले बच्चों की राह देख रहे थे. इस से पहले कि मैं उस मैदान को कुछ कह पाता उसने मुझे अनदेखा कर दिया. शायद खुद को बारिश के पानी से झटपट सुखा लेना चाहता था. मुझे तो निराश कर सकता था लेकिन उन बच्चों को नहीं जो रोज़ आकर उसे उसके बुढ़ापे में भी जोश से भर दिया करते थे.




एक अनजान से स्टेशन पर रेलगाड़ी कुछ धीमी हुयी. मैंने सोचा कि अगर रुकेगी तो कुछ देर प्लेटफॉर्म पर चहलकदमी कर लूँगा लेकिन वो जल्द ही रफ़्तार पकड़ कर आगे बढ़ गयी. उस शहर से बेवफाई सिर्फ रेलगाड़ी ने ही नहीं की थी…

बहुत कुछ याद आने लगा मुझे और मैं उन्हीं यादों में डूबा बाहर फैले अँधेरे और सन्नाटे में खुद को भी भुलाता चला गया.

सुबह होने में अभी काफी वक़्त बचा था…

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