एक साँचा ज़िन्दगी का
ज़िन्दगी का कोई साँचा,
क्या देखा है तुमने कभी?
क्या है मुमकिन कि तुम जियो मेरी तरह
और तुम्हारे नज़रिये से चले दुनिया मेरी?
वो कहते हैं ज़िन्दगी ऐसे जियो
वो कहते हैं ज़िन्दगी ऐसे मत जियो
क्या हैं कोई रिवायतें या लिखी कोई किताब
जो बताये सलीका जीने का, रखे सही गलत का हिसाब?
लाखों करोड़ों शख़्स हैं खुदा की इस क़ायनात में
जी रहा हर कोई ज़िन्दगी, अपने ही हिसाब से
रूबरू है हर शख़्स, मुख़्तलिफ़ ही हालात से
तो किस लिहाज़ से कहते हैं लोग, क्या है सही और क्या नहीं?
अलग है सोच, अलग हैं शौंक
अलग हैं रस्में, अलग हैं कसमें
अलग हैं खुशियां, अलग ख़्वाहिशें
तो कैसे हो हर जीवन की- सूरत वही, सीरत वही?
हर ज़िन्दगी एक साँचें में कैसे ढलेगी ऐ दोस्त
जो रात सुकूं देती तुझे, वो ग़म का सबब बने मेरी
तुम अपनी जियो, हम अपनी जियें
तभी बनेगी हर ज़िन्दगी खूबसूरत, तभी होगा हर रिश्ता सुनहरी/ हसीं