Meri Khamoshi Ko Zubaan Mil Gayi Hai…
मेरी खामोशी को जुबां दी है जिसने,
वो कोई गैर कैसे हो सकता है…
लाड दुलार दे रातों को सुलाया जिसने,
वो कोई गैर कैसे हो सकता है…
अटक अटक के कुछ आवाज़ निकालती जुबां को-
पहला शब्द “माँ” सिखाया है जिसने,
वो कोई गैर कैसे हो सकता है…
डगमगाते कदमों को राह दी जिसने,
वो कोई गैर कैसे हो सकता है…
हाथ पकड़ पहली बार कोई अक्षर लिखना सिखाया है जिसने,
वो कोई गैर कैसे हो सकता है…
आँखों को मेरी ख़्वाब दिए जिसने,
वो कोई गैर कैसे हो सकता है…
इरादों को मेरे होंसला दिया जिसने,
वो कोई गैर कैसे हो सकता है…
पंखों को मेरे उड़ने का आगाज़ दिया है जिसने,
वो कोई गैर कैसे हो सकता है…
साँसों को मेरी थाम लिया है जिसने,
वो कोई गैर कैसे हो सकता है…
मेरे धीरे से धड़कते दिल को अपनी आवाज़ सुनने की हिम्मत दी जिसने,
वो कोई गैर कैसे हो सकता है…
मेरी उलझनों को संभल कर सुलझाया जिसने.
वो कोई गैर कैसे हो सकता है…
पाणिग्रहण को मिलन की बेला बनाया है जिसने,
वो कोई गैर कैसे हो सकता है…
आत्मा की आवाज को बिन कहे समझा जिसने,
वो कोई गैर कैसे हो सकता है…
आज मुझे मुझसे मिलाया है जिसने,
वो कोई गैर कैसे हो सकता है…
क्यूंकि शायद मेरे अन्दर की चुप्पी को जगाया है जिसने,
वो कोई गैर कैसे हो सकता है…
खामोश ही रह जाती मैं गर वो कोई गैर,
जीवन के हर पड़ाव पर मुझे अपनाने न आता…
खामोश ही रह जाती मैं गर वो कोई गैर,
मुझे सँभालने न आता..
मुझे खामोश से चेह-चाहती चिड़िया ना बनाता
ख़ामोशी तोह अब बस जैसे चली सी गयी है…
क्यूंकि उस गैर के कई अपनों का रूप ले – मेरी ज़िन्दगी में आने से
मेरी खामोशी को जुबां मिल गयी है!!!
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