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अब बिकाऊ है ज्ञान

 

कण-कण को जोड़ कर बनती है बोलियां
बोलियों का आधार है स्वर
स्वर से बनते शब्द
और शब्दों का आधार है ज्ञान।

 

अब ज्ञान होता दुर्लभ जब
अर्जित करने को लगते ते थे प्रयास अनगिनत तब
जीवन की कठिनाइयां सीख बड़ी दे जाती
अच्छी-अच्छी किताबें जो कभी सिखला नहीं पाती।

 

कभी शिक्षा पाने की खातिर गुरुदक्षना दी जाती
तभी तोह एकलव्य ने अपनी उंगली थी काटी
फिर तब गुरु भी तो द्रोणाचार्य जैसे होते थे
जो अपने ज्ञान की निर्मल धारा से अपने शिष्यों को संजोते थे।

 

फिर बदला दौर और शिक्षा ने था मुख मोड़ा
अब तो लेन देन बन गया था शिक्षा पना थोड़ा
हर तरफ ये चलन था आम
तु दे अनाज या कपड़ा और ले ज्ञान।

 

ज्यों युग बीते सो सुख चैन खोता रहा
और हर शिक्षा देने वाला माया मुग्ध होता चला
हर स्वर से सरस्वती जैसे चली सी गयी हैं
और लक्ष्मी लोभन ने उसकी जगह ले ली है।

 

चलो फिर से मन में ये ज्योत जलाएं
सरस्वती को सही स्थान दिलाये
हैं बिकाऊ नही ज्ञान
यही हो शिक्षा की असली पहचान।

 

जो तुझे आता है तु मुझे सिखाये
जो मुझे आता है में तुझे
सिर्फ किताबी ज्ञान ना रह जाये आधार
और जीवन के हर प्रश्न की अनुक्रिया सूझे।





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